जन्मी बिठुर में एक चिंगारी थी,
जिसका इंतज़ार था कबसे भारत को |
लिखी जिसने नारी की ऐसी परिभासा
इतिहास करता हर पल सलाम उनको |
रखे थे कदम ब्रह्मन के घर में
पर रूह लायी थी एक सेनानी की |
जब खेले दोस्त उसके गुड्डे-गुड़ियों से,
तब बात करती वो भाले और तलवारों की |
गुरु थे जिसके तांत्या टोपे
और भाई, वीर नाना साहब |
हिम्मत थी बेसुमार उसमे और
सहस भरे थे उसमे बेहिसाब |
कुछ सोची थी तक्द्देर ने भी,
जो बांध दिया राजा गंगाधर से |
और दिल में बसे उसके जज्बे को
यूँ जोड़ दिया जूनून के समंदर से |
गावं से निकल कर हाथी पे सवार हुई
महारानी बनी जब झाँसी की |
सिखा गयी सबको एकता की बातें
और ज्वाला जला गए सबमे क्रांति की |
नको चने दबा दिया गोरों को
तिलमिला उठे उसके तेज़ से |
गोरे तो बस घायल हो गए
जब सामना हुआ रानी लक्ष्मी बाई से |
ऐसे खूब लड़ी वो मर्दानी
वो तो झाँसी वाली रानी थी |
देश पे न्योछावर करदी जिसने
उसकी सची देशप्रेमी की कहानी थी |
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