Wednesday, April 13, 2011

दूर तक छलकती नीर में जैसे.........

दूर तक छलकती नीर में जैसे 
बीछी हो हर तरफ  कोई नीली ओढ़नी हो
सरसराती हुई जब आये सामने
दिल कहे उसे तुम कितनी सोनी हो .

देखा जो तुम्हे, तो सोचा कैद कर दूँ 
अक्षरों में अपनी छोटे छोटे अक्षरों में
पर समेट न सका मई तेरी खूबसूरती 
अपने कविता के चन्द पंक्तियों में


पल भर में आती हो लेकिन 
अगले पल में ही तुम चली जाती हो
पर
जाते जाते कुछ इस तरह शर्माती  हो जैसे 
केहती हो रोक ले हमें जब हम जाते हो
 

 रोज़  सुबह  सूरज  जब  चूमे  तुमको   
 अपने  होंठों  की  लाली  छोड़  जाती  है
 और  फिर  रात  के  अँधेरे  में चाँद
चांदनी  की साडी  तुमपे  सजा जाती है

कभी  हलके  हलके  चलती  तुम

और कभी ओउच  कहके कूद  जाती  हो
कुछ पल फुहारों  की मस्ती  लेती
और कुछ पल हमपे ही बरस जाती हो

सिर्फ  खुसी  ही  नहीं  रहती  पास तेरे  

पर गम  भी  सह  जाती हसकर  वो
हर रंग  जीवन  का समेत लेती  है
जैसे सागर  नहीं कोई बड़ी  दिलवाली  हो.

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