Sunday, October 7, 2018

Kuch panktiyaan ...2

ए हसी, एक लम्हा थे तुम,
दिन महीने साल से सदी बन गए हो,
हर कतरे में छिपी मुस्कुराहट थे तुम,
आज हर ज़र्रे की मुक्तलिफ़ हो गए हो ।

यह है उस पर्वतदगार का रिस्ता मुसलसल है मुझसे,
जो आज भी हर कतरों मे थोड़ा सा बसे हो तुम..
आए हसी आज भी एक लम्हा हो तुम...

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