Thursday, January 2, 2014

सच.. . किसे कहते है

सच.. . किसे कहते है
येह तो खुद सच को मालूम नहीं


छोटे थे तो डरते थे अँधेरे से
और सिमट जाते थे पल्लू में माँ के
और सोचते थे हर वक़्त के 
क्या सच कहते है इसे...

समझ का दायरे बदलने लगे
सब्दों बनावटी साँचे में ढलने लगे
रिश्ते अभी बने भी लगे
और हम लगा सच्चे कहते है इसे .. .

फिर थोड़े और बड़े हुए हम
यारों संग रहते थे हम
और उन्ही में ही दुनिया ढूंढने लगे हम
तो बदल गयी फिर से सच सोचते थे जिसे

पडली थोड़ी बहुत अब हमने भी
करने लगे थे काम भी
और खुस हुए हम जब हमने भी जीली ज़िंदगी
और सोचा अब सच इसे ही कहते होंगे

फिर बदल गयी सच हमारी
जब हमसफ़र संग देखि दुनिया दरी
उन्देखा था ये सारा नज़ारा सारा
और सोचा के अब सच किसे कहते है। .

सफर ज़िंदगी का हो रहा ख़त्म
अपने सारे भी अब चले गए थे दूर
बस घडी दो घडी बची थी साँसों की जब
 पताचला के ज़िंदगी भर जिसे ढूंढ रहा था वो सच एहि है.........