Tuesday, January 22, 2013

lehrati patti...


दूर उपर की झुकी टहनी से 
वो पत्ता यूँ इतराकर आ राहा था 
मनो एक हलके से झटके से खुस हो कर 
वो मदमस्त लहराता आ रहा था

कभी दायें तो कभी बाएं 
देख देख कर वो रास्ता आ राहा था 
मनो बीच रास्ते में कहीं कोई 
यातायात की बत्ती जल दे राह था 

अब भी वो ना था नीचे उतरा 
घमंड में अपने बीच में लटक गया 
पर बेचारा एक चोटी सी हवा का झोंका आया 
और वो दर के मरे फिर नीचे चला आया 


नीचे आ रहा बड़े ही सुस्ताते हुए 
जैसे भर पेट खाना हो गया 
और जैसे ही हाथ में मेरे वो लेटा 
चुप चाप वोहिंपर ही सो गया 

मैं भी न बात कर नीचे छोड़ दिया 
और सहन्ती से उसे अपनी नींद पे छोड़ दिया 
और वापस ऊपर देखने में लग गया के कहीं
कोई और नन्ही सी पत्ति पेड़ से नाता तोड़ ना दिया